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सत्ता के साए में कानून से खिलवाड़: सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की उड़ाई धज्जियाँ

  • ‘अर्नेश कुमार’ और “डीके बासु’ केस की भावना को तोड़ा गया – गिरफ्तारी का औचित्य बिना रात में घर का ताला तोड़ अंदर घुसी पुलिस
  • ‘बुलंद छत्तीसगढ़’ के संपादक के घर पुलिस की कार्रवाई पर सवाल – लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की गरिमा पर प्रहार
  • जनसंपर्क विभाग के वरिष्ठ अधिकारी संजीव तिवारी पर ‘गला दबाने’ के आरोप, वीडियो ने खोली तिवारी की पोल
  • समाजसेवी प्रो. अकिल अंसारी ने की शासन से उच्चस्तरीय निष्पक्ष जाँच की माँग

रायपुर। छत्तीसगढ़ में प्रेस की स्वतंत्रता और पुलिस की कार्यप्रणाली पर गहराता विवाद अब शासन के लिए नैतिक परीक्षा बन गया है। संवाद कार्यालय में वरिष्ठ अधिकारी संजीव तिवारी द्वारा पत्रकार से मारपीट और उसके बाद रात में संपादक मनोज पाण्डेय के घर पुलिस की कथित विधिविरुद्ध कार्रवाई ने प्रशासनिक संवेदनशीलता पर गंभीर प्रश्न खड़े कर दिए हैं। सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो ने इस घटना को जनचर्चा के केंद्र में ला दिया है। सुप्रीम कोर्ट के अर्नेश कुमार और डी.के. बासु निर्णयों की अवहेलना, तथा पत्रकारों के खिलाफ कठोर कार्रवाई ने ‘रूल ऑफ लॉ’ पर गहरी चोट की है। अब सवाल है – क्या लोकतंत्र में कलम सुरक्षित है?

घटनाक्रम: एक रिपोर्टर, एक सवाल और फिर सत्ता का प्रहार


रायपुर। 7 अक्टूबर को “बुलंद छत्तीसगढ़” समाचार पत्र में एक रिपोर्ट छपी – “जनसंपर्क विभाग का अमर सपूत”, जिसमें यह सवाल उठाया गया था कि एक अधिकारी दो दशक से एक ही विभाग में क्यों जमा हुआ है?
अगले ही दिन जब रिपोर्टर अभय शाह संवाद कार्यालय पहुँचे, तो वहां वरिष्ठ अधिकारी संजीव तिवारी ने कथित तौर पर उनसे बदसलूकी की।
9 अक्टूबर को पत्रकार फिर स्पष्टीकरण और संवाद के लिए पहुँचे – लेकिन वहाँ जो हुआ, उसने प्रशासनिक संस्कृति की सच्चाई उजागर कर दी।

वीडियो में तिवारी पहले कॉलर पकड़ते, फिर गला दबाने का प्रयास करते दिखाई देते हैं। यह वीडियो अब सोशल मीडिया पर आग की तरह फैल चुका है और पत्रकार संगठनों ने इसे “प्रेस फ्रीडम पर हमला” बताया है।

सुप्रीम कोर्ट के आदेश और छत्तीसगढ़ में ‘विधिक उल्लंघन’ की मिसाल


रायपुर। घटना के बाद दर्ज एफआईआर (Crime No. 0165/2025) में जो धाराएँ लगाई गईं – वे सभी सात वर्ष से कम सज़ा वाली हैं।
फिर भी, पुलिस ने रात 1:37 बजे बिना महिला पुलिसकर्मी के संपादक मनोज पांडे के घर में प्रवेश किया, गेट तोड़ा और सीसीटीवी-डीवीआर कब्जे में लिया।

1 – सुप्रीम कोर्ट का “अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2014)” निर्णय
कहता है – “जिन अपराधों में सात वर्ष से कम सज़ा हो, उनमें गिरफ्तारी सामान्य नियम नहीं हो सकती। पुलिस को लिखित कारण दर्ज करना अनिवार्य है कि गिरफ्तारी आवश्यक क्यों है।”
2 – “डीके बासु’ बनाम बंगाल राज्य (1997)” निर्णय
गिरफ्तारी या तलाशी की हर कार्रवाई पारदर्शी और मानवोचित होनी चाहिए। रात में बिना महिला पुलिस के घर में प्रवेश करना, अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है।”

इन दोनों ऐतिहासिक फ़ैसलों की मूल भावना को दरकिनार कर पुलिस ने जिस तरह बर्बर कार्रवाई की, वह ‘रूल ऑफ लॉ’पर करारा तमाचा है।

कानून का आईना – संविधान की आत्मा क्या कहती है?
🔸 अनुच्छेद 19(1)(a) — नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है।
🔸 अनुच्छेद 21 — जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करता है।
🔸 इन दोनों के बीच पत्रकार ही वह सेतु हैं जो जनता और सत्ता के बीच सत्य का प्रवाह बनाए रखते हैं।

कानून विशेषज्ञों का कहना है – “यदि सत्ता के दायरे में बैठे लोग पत्रकारों पर हमला करें, और पुलिस मूकदर्शक बन जाए, तो यह संविधान की आत्मा का अपमान है।”

पत्रकारों में आक्रोश – ‘यह हमला एक व्यक्ति पर नहीं, प्रेस की आत्मा पर है’


राज्यभर के पत्रकार संगठनों ने कहा कि यह केवल एक पत्रकार का मामला नहीं, बल्कि लोकतंत्र की रीढ़ पर चोट है। रायपुर प्रेस क्लब, सरगुजा प्रेस यूनियन, और कई वरिष्ठ संपादकों ने बयान जारी कर कहा – “यदि सत्ता के संरक्षण में प्रेस की आवाज़ दबाई जाएगी, तो जनता के सवाल कौन पूछेगा?”

पत्रकार संगठनों ने मुख्यमंत्री से मांग की है कि “पत्रकार सुरक्षा अधिनियम” के तहत स्वत: संज्ञान लेकर दोषियों पर कार्रवाई की जाए और पुलिस की भूमिका की निष्पक्ष जांच हो।

प्रो. अकिल अंसारी का पत्र – ‘कानून से ऊपर कोई नहीं’


सरगुजा के समाजसेवी और असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. अकिल अहमद अंसारी ने शासनको भेजे अपने विस्तृत पत्र में कहा – “यह मामला केवल एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि शासन की नैतिकता, प्रशासन की जवाबदेही और प्रेस की स्वतंत्रता की परीक्षा है।”
यह मामला अब केवल प्रशासनिक नहीं, बल्कि संवैधानिक मर्यादा और न्याय की विश्वसनीयता का परीक्षण है। शासन से उम्मीद है कि वह इस पर शीघ्र, पारदर्शी और निष्पक्ष कार्रवाई करेगा, वरना यह संदेश जाएगा कि “शक्ति कानून से ऊपर है”।

उन्होंने शासन के सामने पाँच प्रमुख मांगें रखीं —
1- श्री संजीव तिवारी पर भारतीय न्याय संहिता की धाराओं 352, 166, 166A और 307 के तहत आपराधिक मामला दर्ज हो।
2- विभागीय जांच व निलंबन की कार्रवाई तत्काल शुरू की जाए।
3- पत्रकार मनोज पांडे के घर पर पुलिस की कार्रवाई की स्वतंत्र जांच हो और संबंधित कर्मियों पर धारा 324, 452, 354 में प्रकरण दर्ज हो।
4- विज्ञापन नीति 2020 व डिजिटल विज्ञापन नीति 2023 की समीक्षा कर मीडिया नीति में पारदर्शिता सुनिश्चित की जाए।

5- किसी भी अधिकारी को लम्बे समय तक एक ही पद पर न रखा जाए – ताकि प्रशासनिक एकाधिकार समाप्त हो।

क्या जनसंपर्क बन रहा “जनदमन” विभाग जनसंपर्क विभाग का मूल कार्य जनता तक शासन की नीतियाँ पहुँचाना है। लेकिन जब यही विभाग “जनसंपर्क” के बजाय “जनदमन” का माध्यम बन जाए, तो शासन की साख पर प्रश्नचिह्न लगना स्वाभाविक है। राज्य के मीडिया विश्लेषकों का कहना है कि “विज्ञापन नीति” के माध्यम से दबाव बनाना और असहज सवालों को दबाना अब एक अस्वस्थ प्रवृत्ति बनती जा रही है।

कानून जेब में और कलम ज़मीन पर!

लोकतंत्र की सबसे बड़ी शक्ति उसकी आवाज़ है – और यह आवाज़ प्रेस के माध्यम से जनता तक पहुँचती है। लेकिन जब यही आवाज़ सत्ता को असहज करती है और उस पर प्रहार होता है, तो यह सिर्फ़ एक व्यक्ति या संस्था पर हमला नहीं होता, बल्कि लोकतंत्र की नींव पर चोट होती है। छत्तीसगढ़ संवाद कार्यालय में वरिष्ठ अधिकारी द्वारा पत्रकार से दुर्व्यवहार और उसके बाद पुलिस द्वारा कथित ‘बर्बर’ कार्रवाई ने शासन, पुलिस और प्रशासन – तीनों स्तंभों की संवेदनशीलता पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं।
सुप्रीम कोर्ट के अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2014) और डीके बासु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1997) जैसे ऐतिहासिक निर्णयों ने पुलिस कार्रवाई की सीमाएँ तय की थीं। इन निर्णयों का सार यही था कि “कानून केवल सजा का औजार नहीं, बल्कि न्याय का संरक्षक है।” लेकिन जब इन्हीं सिद्धांतों को दरकिनार कर गिरफ्तारी औचित्यविहीन हो जाए, घरों के दरवाज़े रात में तोड़े जाएँ और पत्रकारिता को अपराध की तरह देखा जाए- तो यह स्थिति किसी भी सभ्य शासन व्यवस्था के लिए शर्मनाक है।
प्रेस पर प्रहार, पुलिस का अतिप्रयोग और प्रशासनिक संरक्षण – यह तिकड़ी आज लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा बन चुकी है। सत्ता की यह चुप्पी और कानून का यह मौन, उस नैतिक अनुशासन को तोड़ता है जिस पर लोकतंत्र टिका है। पत्रकारिता का काम सत्ता को गिराना नहीं, बल्कि सवालों के दर्पण में उसे देखना है। लेकिन जब दर्पण ही तोड़ दिया जाए, तो सच्चाई का प्रतिबिंब कहाँ बचेगा?
अब प्रश्न केवल एक पत्रकार पर हमले का नहीं, बल्कि उस तंत्र का है जो अपनी आलोचना से असहज हो जाता है। शासन को यह तय करना होगा कि वह जनता की निगाहों में पारदर्शी रहना चाहता है या उन ताक़तों के साथ खड़ा है जो कानून को अपनी जेब में रखती हैं। क्योंकि लोकतंत्र में सत्ता की असली परीक्षा इस बात से होती है कि वह अपने आलोचकों के साथ कैसा व्यवहार करती है, सम्मान से या प्रतिशोध से।
जब कानून सत्ता की जेब में और कलम ज़मीन पर गिर जाती है, तब लोकतंत्र का सूरज भी धुंधला पड़ने लगता है।

Buland Chhattisgarh

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