
विभागीय लापरवाही, पानी की अनदेखी और करोड़ों के निर्माण पर उठे सवाल
लैलूंगा/रायगढ़। करोड़ों की लागत से बना वन विभाग का कर्मचारी आवासीय परिसर आज खंडहर में तब्दील हो चुका है। वर्ष 2005-06 में लैलूंगा स्थित सुश्रुत वन कैंपस में मुख्यालय के अधिकारी-कर्मचारियों के लिए लगभग 10 सरकारी आवासों का निर्माण किया गया था, लेकिन इन भवनों में आज तक एक भी कर्मचारी ने निवास नहीं किया। नतीजा यह है कि 20 वर्षों से बिना उपयोग के पड़े ये भवन अब जर्जर अवस्था में पहुंच गए हैं।इन आवासों को लेकर विभाग की लापरवाही इस हद तक रही है कि निर्माण के बाद से अब तक न तो किसी प्रकार की मरम्मत कराई गई, न साफ-सफाई की व्यवस्था हुई, और न ही पानी जैसी मूलभूत सुविधा उपलब्ध कराई गई। विभाग के कुछ कर्मचारियों के अनुसार, जलस्तर बेहद कम होने के कारण बोर खनन की कई कोशिशें की गईं, लेकिन सफलता नहीं मिली। बताया गया कि चार से पांच बोर करवाए गए, मगर पानी नहीं मिला।

क्या बिना सर्वे हुआ था करोड़ों का निर्माण कार्य?
सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब इस क्षेत्र में जलस्तर इतना नीचे है, तो भवन निर्माण से पहले इसका सर्वे क्यों नहीं कराया गया? क्या करोड़ों रुपए की इस योजना को बिना जमीनी सत्यापन के महज़ खानापूर्ति या विभागीय साठगांठ के तहत आगे बढ़ाया गया?सूत्रों की मानें तो निर्माण का ठेका लेने वालों और उस समय के अधिकारियों के बीच मिलीभगत से यह कार्य जल्दबाज़ी में किया गया ताकि बजट का उपयोग दिखाया जा सके। पर अब नतीजा यह है कि भवन पूरी तरह अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रहे हैं।
20 वर्षों में विभाग की चुप्पी, कोई सुधार कार्य नहीं
बीते दो दशकों में विभाग के किसी भी अधिकारी ने इस मुद्दे पर ध्यान देना जरूरी नहीं समझा। पानी की समस्या तो रही ही, पर समाधान की दिशा में कोई ठोस प्रयास नहीं हुआ। ऐसे में यह संदेह गहराता जा रहा है कि इस मामले में करोड़ों रुपए के घोटाले की संभावना है।
पड़ोस में बना भवन पानी की व्यवस्था के साथ आबाद, फिर वन विभाग क्यों असफल?
सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि इसी परिसर से मात्र 50 मीटर की दूरी पर राजस्व विभाग का शासकीय फ्लैट परिसर स्थित है। वहां भी पानी की समस्या थी, लेकिन तत्कालीन कलेक्टर ने हस्तक्षेप करते हुए एक किलोमीटर दूर से जल आपूर्ति सुनिश्चित कराई। आज वहां तहसीलदार से लेकर एसडीएम तक निवासरत हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि जब दूसरे विभाग पानी की व्यवस्था करा सकते हैं तो वन विभाग ने अपने कर्मचारी भवनों के लिए 20 वर्षों में यह प्रयास क्यों नहीं किया?
खंडहर बन चुके भवन बन गए असामाजिक गतिविधियों के अड्डे

इन भवनों में अब कोई कर्मचारी नहीं रहता, लेकिन स्थानीय लोगों की मानें तो यहां असामाजिक तत्वों की आवाजाही बनी रहती है। रात के समय इन सुनसान भवनों में अनैतिक गतिविधियों की भी आशंका जताई जा रही है। बावजूद इसके विभाग ने आंख मूंद रखी है।
भविष्य में हो सकती है बड़ी जांच
सूत्रों की मानें तो निर्माण, बोर खनन, रंग-रोगन, और मेंटेनेंस के नाम पर विभाग द्वारा कई बार फाइलें चलाई गई हैं, जिससे यह अंदेशा है कि कागज़ों में इन भवनों पर बार-बार खर्च दिखाया गया है। यदि इसकी निष्पक्ष जांच कराई जाए तो करोड़ों की गड़बड़ी सामने आ सकती है।
निष्कर्ष
लैलूंगा वन विभाग के यह जर्जर भवन न सिर्फ विभागीय उदासीनता की मिसाल हैं बल्कि यह दर्शाते हैं कि योजनाओं की नाकामी में सिर्फ प्राकृतिक कारण नहीं, बल्कि प्रशासनिक लापरवाही और भ्रष्टाचार भी बराबर के दोषी हैं।