सवाल उठता है कि पत्रकारिता आखिर रह क्या गई है?

पत्रकारिता की मौत पर खामोश सरकार: क्या लोकतंत्र का चौथा स्तंभ सिर्फ दिखावा है?
अगर पत्रकार सच नहीं लिखेंगे, तो बचा क्या? चाटुकारिता? जी-हजूरी?
चुनाव आते ही नेता पत्रकारों से दोस्ती गांठते हैं, और चुनाव जीतने के बाद उन्हें पहचानने से भी करते हैं इनकार…!
फर्जी पत्रकारों की भरमार भी एक गंभीर समस्या है….!
“आदित्य गुप्ता”
रायपुर – उत्तर प्रदेश में पत्रकारों की हत्याएं और उन पर हो रहे हमले कोई नई बात नहीं रहे। लेकिन सरकार की उदासीनता ने यह साबित कर दिया है कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ अब पूरी तरह दरक चुका है। पत्रकारों को अपनी जान हथेली पर रखकर सच लिखना पड़ता है, और अगर किसी ने भ्रष्टाचार या सत्ता के खिलाफ आवाज उठा दी, तो उसकी लाश मिलना तय है। लेकिन इससे सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता।
अगर पत्रकार सच नहीं लिखेंगे, तो बचा क्या? चाटुकारिता? जी-हजूरी?
आज जो भी पत्रकार सत्ता के खिलाफ बोलने की हिम्मत करता है, उसकी आवाज या तो दबा दी जाती है या फिर हमेशा के लिए बंद कर दी जाती है। पत्रकारों के नाम पर बड़े-बड़े संगठन बने हैं, जिनका पत्रकारिता से कोई लेना-देना नहीं, बस अपने फायदे के लिए राजनीतिक पार्टियों की चरण वंदना में लगे रहते हैं। काम करने वाले पत्रकार जिएं या मरें, इन संगठनों को कोई फर्क नहीं पड़ता।
सरकार की नीतियां, योजनाएं, उपलब्धियां
यह सब जनता तक पहुंचाने का काम पत्रकार ही करते हैं। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से, उन्हीं पत्रकारों की सुरक्षा पर सरकार को कोई चिंता नहीं। हर राजनीतिक दल को मीडिया की जरूरत होती है, लेकिन किसी को भी पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की फुर्सत नहीं। चुनाव आते ही नेता पत्रकारों से दोस्ती गांठते हैं, और चुनाव जीतने के बाद उन्हें पहचानने से भी इनकार कर देते हैं।
फर्जी पत्रकारों की भरमार भी एक गंभीर समस्या है….!
असली पत्रकार मौत के साये में रिपोर्टिंग कर रहा है, जबकि नकली पत्रकार मलाई खा रहा है।
आधे से ज्यादा लोग, जिन्होंने पत्रकारिता का “प” भी नहीं पढ़ा, आज मान्यता प्राप्त पत्रकार बने घूम रहे हैं। खबरों से कोई लेना-देना नहीं, लेकिन राजनीति और पैसे के खेल में ये सबसे आगे रहते हैं। असली पत्रकार मौत के साये में रिपोर्टिंग कर रहा है, जबकि नकली पत्रकार मलाई खा रहा है। सरकार को चाहिए कि पत्रकारों की सुरक्षा के लिए सख्त कानून बनाए। अगर वाकई लोकतंत्र में पत्रकारिता को महत्व दिया जाता है, तो पत्रकारों की सुरक्षा भी प्राथमिकता होनी चाहिए। लेकिन शायद सरकार को इसकी जरूरत ही नहीं लगती। जब तक पत्रकारों पर हमले होते रहेंगे और सरकार आंखें मूंदे बैठी रहेगी, तब तक लोकतंत्र का चौथा स्तंभ सिर्फ नाम का ही बना रहेगा।