Buland Chhattisgarh : बुलंद छत्तीसगढ़’ को दबाने के हर संभव प्रयास में जुटे CPR मित्तल
एक प्रदेश, एक चिंता: स्वतंत्र पत्रकारिता अब सुरक्षित नहीं!
मीडिया संस्थानों को लेकर उठी चिंताओं पर निष्पक्ष जांच की मांग तेज़‘

रायपुर। छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता पर संकट के बादल गहराते दिखाई दे रहे हैं। सवाल यह नहीं कि एक अख़बार के साथ क्या हुआ – सवाल यह है कि क्या अब इस प्रदेश में निष्पक्ष पत्रकारिता करना अपराध बन चुका है? क्या अब सच्चाई लिखने पर पत्रकारों को दबाया, डराया और प्रताड़ित किया जाएगा?
और सबसे बड़ा सवाल – क्या इस पूरे घटनाक्रम के केंद्र में बैठे जनसंपर्क आयुक्त डॉ. रवि मित्तल अपनी कुर्सी का इस्तेमाल एक स्वतंत्र आवाज़ को कुचलने के लिए कर रहे हैं?बीते कुछ महीनों में जो घटनाएं सामने आई हैं, वे केवल एक मीडिया संस्थान की लड़ाई नहीं, बल्कि पूरे प्रदेश में मीडिया की आज़ादी पर हो रहे हमलों की साफ़ निशानी हैं।
और इसी हमले का सबसे ताज़ा और चौंकाने वाला उदाहरण है –
‘बुलंद छत्तीसगढ़’ पर की जा रही लगातार कार्रवाई, दबाव और बदले की भावना से की गई कार्रवाइयाँ। बुलंद छत्तीसगढ़ पर जनसंपर्क विभाग द्वारा प्रहार निम्नलिखित है….
विज्ञापन बंद – पहला प्रहार

जनसंपर्क विभाग की सूची में शामिल होने के बावजूद, ‘बुलंद छत्तीसगढ़’ के सरकारी विज्ञापन अचानक बंद करवा दिए गए। बिना किसी औपचारिक कारण, बिना किसी नोटिस और बिना किसी समीक्षा के। मीडिया जगत में इसे एक खुला संदेश माना गया – “सरकार के खिलाफ लिखोगे, तो रोटी काट दी जाएगी।” कई वरिष्ठ पत्रकारों का कहना है कि यह सिर्फ शुरुआत थी। और इस शुरुआत के पीछे सबसे प्रमुख भूमिका बताई जा रही है- डॉ. रवि मित्तल की।
दूसरा प्रहार – प्रिंटिंग प्रेस पर दबाव

विज्ञापन रोका गया, मगर अख़बार चल रहा था। तो अगला वार वहीं किया गया जहाँ अख़बार सांस लेता है – प्रिंटिंग प्रेस। प्रेस संचालकों को दबाव डालकर कहा गया:“बुलंद छत्तीसगढ़ का पेपर नहीं छापना है।”
कौन-सा विभाग दबाव बना रहा था?
किसके निर्देश पर यह सब किया जा रहा था?
पत्रकार जगत में सभी उंगलियाँ एक ही दिशा में उठ रही हैं – डॉ. रवि मित्तल।
तीसरा प्रहार – डिस्ट्रीब्यूटर को गाली, धमकी और दफ्तर में अपमान

दबाव यहीं नहीं रुका। पेपर बांटने वाले एक युवक को जनसंपर्क विभाग (संवाद कार्यालय) बुलाया गया। वहाँ एक अधिकारी ने न सिर्फ गाली-गलौज की, बल्कि धमकाया भी। साफ-शब्दों में कहा गया – “पेपर बाँटोगे तो ठीक नहीं होगा… दफ्तर के पास मत दिखाई देना।”
इस घटना की शिकायत जब सीधे जनसंपर्क आयुक्त डॉ. रवि मित्तल को की गई, तो उन्होंने वही किया जो सत्ता-संचालित सिस्टम में अक्सर होता है – “देखते हैं…” कहकर बात टाल दी।
चौथा प्रहार – गाली-गलौच, मारपीट


जब ‘बुलंद छत्तीसगढ़’ के संपादक मनोज पांडे ने 9 अक्टूबर को समय लेकर 12: 30 से 1 के बीच डॉ. रवि मित्तल से मुलाकात की – उम्मीद थी कि बात सुलझेगी। लेकिन हुआ उल्टा।
जिस वक्त मनोज पांडे उनके केबिन में बैठे थे, उसी समय बाहर वही डिस्ट्रीब्यूशन करने वाला लड़का विभाग के एक अधिकारी के हाथों गर्दन दबोचने, गाली देने और मारपीट का शिकार हुआ।
आश्चर्यजनक (और सुनियोजित?) यह कि उस समय मनोज पांडे वहाँ मौजूद भी नहीं थे, फिर भी पुलिस बुलाकर उनका नाम FIR में डालने की कोशिश की गई।
साफ़ है कि यह सिर्फ बदले की भावना नहीं लगती, यह किसी खास योजना का हिस्सा दिखता है
पांचवा और सबसे खतरनाक प्रहार: आधी रात को पुलिस की दबिश

रात के करीब 1 बजे – 5 से 6 गाड़ियों में पुलिस, जिसमें सिर्फ 2–3 वर्दीधारी और बाकी सादे कपड़ों में लोग (कुछ शराब के नशे में), एक ट्रांसजेंडर, और बिना महिला पुलिस के, बिना सर्च वारंट, बिना किसी सूचना के सीधे मनोज पांडे के घर पहुँच गई।
दरवाजे को धक्का देकर तोड़ा गया।
घर और दफ्तर में घंटों तक उत्पात मचाया गया।
DVR के साथ छेड़छाड़, अलमारियाँ खंगाली,
पत्नी के साथ धक्का-मुक्की, चूड़ियाँ तोड़ना,
छोटी बेटी को चोट पहुँचना-
यह किस कानून में आता है?
अगर यही पुलिसिया कार्रवाई एक पत्रकार के परिवार के साथ हो सकती है, तो एक आम नागरिक किस सुरक्षा की उम्मीद कर सकता है?
पीड़ित व डरे सहमे बच्चियों के अनुसार पुलिस ने जाते-जाते कहा – “कल पूरे रायपुर की पुलिस लेकर आएँगे… बहुत भारी पड़ेगा।”
क्या यह किसी लोकतांत्रिक प्रदेश की तस्वीर है या किसी डर से चलने वाले तंत्र की?
दो महीने बाद भी FIR दर्ज नहीं – क्यों?
सबसे हैरानी की बात यह कि इतनी बड़ी घटना, इतनी धमकियाँ, इतनी तोड़फोड़, परिवार पर हमला – फिर भी दो महीने बाद तक FIR दर्ज नहीं हुई। क्यों?
किसके आदेश से?
क्या पुलिस भी किसी दबाव में है?
क्या यह पूरा सिस्टम किसी एक व्यक्ति की इच्छा से चल रहा है?
हर जगह एक ही नाम पर सवाल उठ रहा है – डॉ. रवि मित्तल।
यह सिर्फ ‘बुलंद छत्तीसगढ़’ की लड़ाई नहीं – यह प्रेस की आज़ादी की लड़ाई है‘
बुलंद छत्तीसगढ़’ के साथ जो हुआ वह कल किसी और अख़बार के साथ हो सकता है। आज जिस संपादक के घर पुलिस भेजी गई, कल किसी और पत्रकार के घर भेजी जा सकती है। असहमति को अपराध बताने का चलन अगर यूँ ही बढ़ता गया, तो वह दिन दूर नहीं जब पत्रकारों को लिखने से पहले अपने परिवार की सुरक्षा का हिसाब लगाना पड़ेगा।
स्वतंत्र जांच की मांग
पत्रकार संगठनों, एडिटर्स गिल्ड, और कई वरिष्ठ पत्रकारों का कहना है:
पूरे प्रकरण की उच्च-स्तरीय न्यायिक जांच हो
मनोज पांडे के घर हुई छापेमारी, तोड़फोड़ और उत्पात की जांच हो
डिस्ट्रीब्यूटर युवक के साथ मारपीट और धमकी की जांच हो
विज्ञापन रोकने और प्रेस पर दबाव के प्रशासनिक कारणों की समीक्षा हो
और सबसे महत्वपूर्ण:
क्या जनसंपर्क आयुक्त डॉ. रवि मित्तल ने अपनी पद का दुरुपयोग किया?
जब तक इन सवालों के जवाब नहीं मिलते,
प्रदेश में पत्रकारिता की सुरक्षा पर लगा धब्बा नहीं हटेगा।
बचेगी पत्रकारिता या दबेगी?
छत्तीसगढ़ आज एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहाँ सरकार-मीडिया संबंधों की पारदर्शिता पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं। अगर ‘बुलंद छत्तीसगढ़’ को इस तरह से दबाया जा रहा है, तो यह सिर्फ एक संस्थान की बात नहीं – यह आने वाले कल की चेतावनी है। पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है – ऊपर से धक्का दिया जाए तो भी खड़ा रहता है, लेकिन भीतर से सड़ाया जाए तो ढह जाता है।
आज जरूरत है कि वह ढहने न दिया जाए। जरूरत है साहस की, जवाबदेही की, और सबसे बढ़कर – सच की।







